ज्येष्ठ अमावस्या तो आइए जानें पूजा विधि और शुभ मुहुर्त और महत्व।
डीएनबी भारत डेस्क
हिन्दू कैलेंडर के अनुसार हर महीने पूर्णिमा और अमावस्या आती है। अमावस्या का दिन पुण्य के लिए जाना जाता है। इस दिन पितरों की शांति के लिए लोग पिंड दान, तर्पण जैसे कार्य करते हैं। वहीं ज्येष्ठ माह की अमावस्या का महत्व सबसे अधिक बताया जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए वटसावित्री का व्रत अखण्ड सौभाग्य को देने वाला होता है एवं पति दीर्घायु प्राप्त करते है इस लिए ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अमावस्या को अखण्ड सौभाग्य धन धान्य सुख समृद्धि की इच्छा पूर्ति के लिए बरगद वृक्ष के जड़ में पूजन करना चाहिए।
ज्येष्ठ अमावस्या का शुभ मुहूर्त
ज्येष्ठ अमावस्या तिथि – उदयकलिक -19-05-2023
वट सावित्री व्रत – 19-05-2023, ज्येष्ठ अमावस्या तिथि आरंभ – (18-05-2023) रात्रि 08:55 के बाद, ज्येष्ठ अमावस्या तिथि समाप्त – (19-05-2023) रात्रि 08:25 तक शुभ मुहूर्त है।
वट सावित्री व्रत के शुभ मुहूर्त के संदर्भ में ज्योतिष आचार्य अविनाश शास्त्री ने बताया कि अमावस्या तिथि 18 मई 2023 दिन गुरुवार को रात्रि के 08 बजकर 55 मिनट से ही प्रारंभ हो जाएगी लेकिन उदय कालिक अमावस्या तिथि 19 मई 2023 दिन शुक्रवार को ही है। तिथि निर्णय के अनुसार उदय कालिका अमावस्या तिथि ही ग्रहण करना चाहिए ऐसा शास्त्रों का निर्णय है अत: वट सावित्री व्रत 19 मई 2023 शुक्रवार को ही होना उचित है।
वट सावित्री व्रत पूजा-विधि
वट सावित्री व्रत के दिन सुबह उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें, तब व्रत का संकल्प लें, 24 बरगद फल, और 24 पूरियां अपने आंचल में रखकर वट वृक्ष के लिए जाएं, 12 पूरियां और 12 बरगद फल वट वृक्ष पर चढ़ा दें, इसके बाद एक लोटा जल चढ़ाएं, वृक्ष पर हल्दी, रोली और अक्षत लगाएं, फल-मिठाई अर्पित करें,धूप-दीप दान करें, कच्चे सूत को लपेटते हुए 12 बार परिक्रमा करें, हर परिक्रमा के बाद भीगा चना चढ़ाते जाएं, अब व्रत कथा पढ़ें, फिर 12 कच्चे धागे वाली माला वृक्ष पर चढ़ाएं और दूसरी खुद पहनने पर भी नहीं लें, 6 बार इस माला को वृक्ष से बदलें, उसके बाद पूजा करते हुए भगवान से पति के लिए लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करें।
फिर सावित्री मां से आशीर्वाद लें और पेड़ के चारों ओर कच्चे धागे से या मोली को 7 बार बांधे। फिर पति के पैर धो कर आशीर्वाद लें, बाद में 11 चने और वट वृक्ष की लाल रंग की कली को पानी से निगलकर अपना व्रत खोलें, ज्योतिष आचार्य अविनाश शास्त्री कहते हैं की वटसावित्री व्रत के दिन वटवृक्ष में मूल में विवाहिता सौभाग्यवती को सुवर्णमयी सावित्री देवी की प्रतिमा सप्तधान्य पर स्थापित करके पूजन करना चाहिए।
पूजन में देश काल मे उतपन्न फल पुष्प नेवैद्य धूप दीप आदि से सत्यवती सावित्री का पूजन करना चाहिए ततपश्चात अन्न वस्त्रादि ब्राह्मण को निवेदित करते हुए पति के दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए, व्रत के एक दिन पूर्व यानी चतुर्दशी को एकभुक्त सात्विक आहार ग्रहण करते हुए दूसरे दिन अर्थात अमावश्य को व्रत रखना चाहिए और ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा यानी 20मई 2023 शनिवार को प्रातः स्नान आदि नित्य पूजनादि कर्मो से निवृत होकर ब्राह्मण भोजन दान आदिं निवेदित करते हुए स्वयं भोजन पारण करना चाहिए।
मिथिला में नवविवाहिता स्त्रियो के लिए यह वटसावित्री का व्रत किसी महोत्सव से कम नहीं होता। नव विवाहिता स्त्रियों में वरसात पूजन को लेकर विशेष तैयारियां देखी जाती है।
बांस की डोली, बांस के पंखे से वटवृक्ष का पूजन करती है।
पूजन के लिए घरों से जब निकल कर वटवृक्ष के समीप जाती है तो माथे पर बहुरंगी कलशों में जल भरकर समूह में मंगलगीत गाती हुई जाती है। आज भी यह सांस्कृतिक परम्परा ग्रामीण क्षेत्रो में नही बल्कि कस्बाई क्षेत्रो में भी देखने को मिलता है।
भारत की प्राचीन संस्कृति आर्यों की संस्कृति रही है और आरजे प्रकृति उपासक रहे हैं ऐसा इतिहास में प्रमाण मिलता है जिसका झलक हमें आज भी अपनी जीवन पद्धति में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में देखने को मिलता है। इतिहास शिक्षिका मधु कुमारी ने इस संदर्भ में बताया कि वट सावित्री के व्रत की कथा का वर्णन महाभारत महापुराण के वनपर्व के 292 अध्याय में वर्णन मिलता है यानी यह व्रत अतिप्राचीन काल से हमारे यहाँ किया जा रहा है।
वट सावित्री व्रत प्रकृति उपासना का एक परिचायक है जिसके माध्यम से स्त्रियां जंगलों को छोड़कर गांव घरों के सबसे बड़े वृक्ष है अर्थात बरगद के वृक्ष की पूजा करते हुए पर्यावरण उपासना प्रकृति उपासना एवं पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है। जेष्ठ कृष्ण पक्ष अमावस्या तिथि से पूर्व अत्यधिक गर्मी का मौसम होता है जिस कारण सभी वृक्ष है सूखने के कगार पर आ जाते हैं क्योंकि यह बरगद का वृक्ष है छाया के साथ स्वच्छ वायु भी प्रदान करता है और बरगद के वृक्ष का संरक्षण आवश्यक है इसलिए पर्यावरण संरक्षण को प्रकृति उपासना से जोड़ते हुए भारत के प्राचीन मनीषियों ने बरसात आने से पूर्व बट सावित्री व्रत के माध्यम से वृक्षों को जिंदा रखने की परंपरा बनाई है।